मैं अकिंचन, मारा हूँ, तेरी
द्रुत बदलती सम्वेदना का
बहा हूँ भीषण प्रवाह में,
कभी सूखी दरकती वसुंधरा सा
सख्त, सर्द, निर्लिप्त
बरफ सा जो परदा है
एक स्पर्श और निमिष में,
आइसक्रीम सा पिघला है
निशा तक दर्प में उत्तुंग
हिमालय की दीवार हो
जाने किस प्रहर, पिघल फिर
उमड़ते सागर का विस्तार हो
एक रेखीय पथ पर
आशान्वित डगमग चलूंगा
तेरे भावों के दोलन का
केंद्र बिंदु कब बनूँगा?