कुछ गांव की धरती से।
बुआ के बेटे की शादी में आया था। आलू की सेल्हियां,आंख निकलते पौधे, छोटा छोटा खोंट कर मीच कर तुरंत खा सकने वाला चना और उसका हल्का खट्टा और हर्राया सा स्वाद, खड़े -पड़े गन्ने के खेत, ईंटों के बने मकान बिना प्लास्टर, बिना किसी नफासत के बिस्तर, टेंट जो केवल ज़रूरत पूरी करते हैं, और वैसे ही बिना रंगे पुते दूल्हा -दुल्हन.
मिट्टी से जुड़ जाने में बड़ा सुकून है। ऐसा लगता है जैसे आप के टेंशन की अर्थिंग हो गयी हो।
एक छोटा सा बच्चा जिसको बुफे में खाने का तजुर्बा न था, प्लेट लेकर खाना भर लिया, पर बेचारे के छोटे छोटे हाथ मे प्लेट टिक नही सकती थी, तो वहीं बैठ गया,लोगों के आटे जाते पैरों के बीच, एक हसरत भरी दावत का आनन्द लेने के लिए।
शादी में सोफ़ा , फ्रीज़, मिलना नए दौर की शुरुआत है। पलंग, डेग, पतीला, मोटर साईकल,गद्दा,इत्यादि तो हमारे ज़माने में भी था।
खाने के पहले चाट और मिठाई शुरू हुआ। बहुत सारे लोगों ने 5-6प्लेट खाया, ये खाने के पहले की प्रैक्टिस थी। खाने के बाद एक तश्तरी भरी पान, बीड़ी, सिगरेट मिलना बिल्कुल माकूल आवभगत का संकेत है। इसके बिना तो कितने फूफा तुनक जाते क्या कह सकते हैं।