जनवरी 1987 में मैं पहली बार दाखिले के लिए शहर के पास स्कूल में गया। ये मेरे गांव से 35 किमी दूर था। मेरा पूरा गांव मुझे विदा करने आया था। उन्हें विश्वास नही हो रहा था कि 10-11 साल के लड़के को उसके मा बाप किसी स्कूल में छोड़ कर चले आएंगे और वो अब वहीं रहेगा। मेरे लिए भी ये कठिन था।
गांव की टाट पट्टी छोड़ अब डेस्क पर बैठना था। दातुन छोड़ मंजन करना था , और झाड़ा फिरने मैदान तालाब नही बल्कि शौचालय जाना था, जिसे उसके पहले कभी देखा नही था।
स्कूल में सिखाया गया कि सर बोलना है। मास्टर जी और गुरु जी के संस्कार में रमे, ये हमसे हो ही नही पा रहा था। बड़ी मुश्किल से सर जी कहते थे । बिना जी के सर बहुत असम्मानीय लगता था। स्कूल में अपनी प्लेट धोने से लेकर कपड़े धोने, प्रेस करने जैसे काम खुद ही करने थे। उसी उम्र में ही आत्म निर्भर होने लगे थे। रोज़ सुबह 5 बजे उठना, पीटी करना, समय समय पर नाश्ता, खाना मिलना,खेल का समय अलग और ये सब मुफ्त।
घर की कमी खलती नही थी। उन दिनों हमारी आर्थिक स्थिति जो थी उस हिसाब से यहां खाना भी घर से अच्छा मिलता था, उसमे बस प्यार , दुलार,मनुहार की कमी थी।
100 पन्ने कम हो जाएंगे उन्हें समेटने में, जो वहां बीता और जिसने ये ट्रांसफॉर्मेशन कर दिया नही तो क्या जाने इस मौसम में गन्ने छील रहे होते और गुड़ बना रहे होते। शुक्रिया नवोदय का।
पोस्ट लिखने का मकसद ये था ‘सर जी’ भी ‘सर’ के बराबर सम्मानीय थे, ये समझने में कई साल लगे। ऐसे ही हमारी मानसिकता होती है। जो संसार हमारे आस पास नही है , उसे हम सोच समझ ही नही पाते।