Bhor Uske Hisse Ki

About This Book

जब तक जामवंत ने हनुमान को अहसास नहीं दिलाया था  कि तुम समुद्र लांघ सकते हो ,तब तक उनका रावण की नगरी लंका जाना असम्भव  था . इसी तरह  कई बार हमारे मन के अवचेतन के जड़ों ,बन्धनों ,जंजीरों को तोड़ने के लिए एक बल की ज़रूरत होती है ,जो होता तो हमारे अन्दर ही है पर उसे किसी बाहरी जामवंत की ज़रूरत होती है .

तीस से छत्तीस वर्ष के वय की तीन नौकरी पेशा  स्त्रियाँ हैं जो अपना रूटीन जीवन जी रही हैं.  वे काम के सिलसिले में एक दूसरे से मिलती हैं और गहरी  दोस्त बन जाती  हैं . व्यवसायों  की पुरुष प्रधान दुनिया में वे पहले से ही अकेली और पृथक महसूस करती रही थीं . अपने आस -पास के संसार ,  पुरुषों और  समाज के अदृश्य  बन्धनों से उनमें  एक क्षोभ है  . उनमें  से ही  एक स्त्री  द्वारा ,नितांत मजाक में विदेश का ओनली लेडीज ट्रिप प्रस्तावित किया जाता है . बात की बात में वे उस पर सहमत हो जाती हैं.  इस यात्रा पर वे पहली बार स्वयं  से मिलती हैं. अपनी क्षमताओं, सीमाओं  और वर्जनाओं से उनकी मुलाकात होती है . यह यात्रा मिलाती है उन्हें  स्वतंत्र महिला से जो अपने डर ,शर्म , लाज ,लिहाज ,परिधान ,उपेक्षा ,परिहास  से इतने आगे निकल जाना चाहती  है कि उसे यह  सब दिखना ही बंद हो जाए .   

Excerpts
  1. यह शहर कई मायनों में अलग होकर भी शेष भारत से अलग नहीं हो पाता था। पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तरी भाग का वह आखिरी छोर, जहाँ पर सूर्य सीधा सिर के ऊपर किसी एक दिन हो सकता है, उसे कर्क रेखा के नाम से जाना जाता है। कर्क रेखा यानी ग्लोब पर साढ़े तेईस डिग्री अक्षांश उत्तरी, जो भारत के कई शहरों की तरह जबलपुर से भी गुजरती थी। यहाँ इक्कीस जून सबसे बड़ा दिन होता था। मिट्टी चट्टानी थी मगर शहर से सट कर नर्मदा उसे धोती पखारती जा रही थी। देशांतर के हिसाब से भारत के इंडियन स्टैण्डर्ड टाइम वाली रेखा जो मिर्जापुर-इलाहाबाद से गुजरती थी, उससे यह शहर, बस बारह चौदह मिनट पीछे था। पर इसका मतलब यह नहीं था कि यहाँ के लोग पिछड़े थे। वे उतने ही आगे थे जितना शेष भारत था और उतने ही पीछे, जितना शेष भारत।
  2. “मैडम, साइकोलॉजी की थ्योरी कहती है कि जो जिस जगह ज्यादा समय दे रहा है, उसे, वहाँ कुछ है जो बहुत पसंद है। और हमारे जेम्स बांड नॉट नॉट सेवेन ने खबर दी है कि कमांडेंट का काफी आना जाना हुआ है आपके आसपास। उसकी हैंडल बार मूँछें आपको पसंद आ गयी हैं। मैं बस समझ नहीं पा रही कि ऑफिस में कोई चिड़िया के पंख से किसी के गले पर गुदगुदी कैसे लगा सकता है? और जिस लड़की को गुदगुदी हो रही है वह कैसे और कहाँ-कहाँ बल खा कर एक साथ लजा-मुस्कुरा रही होगी? उसके बाद चिड़िया का पंख कौन सा कंटूर बनाया होगा? … शनिवार को कुछ भी सम्भव है।” वह हँसे जा रही थी, पर लगातार बोले जा रही थी। कमरा ठहाकों से थर्राने लगा था। अचानक इस सर्दी में भी तापमान बढ़ गया था। कुछ शब्दों की कल्पना ही गुदगुदाने लगती है।
  3. गुस्से की गर्मी में अक्सर बोलचाल बड़ी जल्दी बंद कर ली जाती है, परन्तु जिस तरह पेड़ पर चढ़ जाना आसान है परन्तु उतरना मुश्किल है, उसी तरह बोलचाल तो तैश में बंद हो जाती है परन्तु फिर वो जमी हुई बर्फ तोड़ने की हिम्मत नहीं हो पाती है। अक्सर इस संकोच में भी नहीं होती कि पता नहीं अगला सही से प्रतिक्रिया देगा या नहीं। ये संकोच की खाई, कटुता के गड्ढे से कहीं गहरी है, उसको पार करने के लिए कई बार यज्ञ करने जैसे अनुष्ठान की मशक्कत करनी पड़ती है। …और अगर कोई पहल कर भी दे और सामने वाले ने जरा भी अनमना जवाब दिया तो आत्म सम्मान का पतला काँच छनाक से टूट जाता है।
  4. उसने मिडी अंदर रख दिया और नीचे से टॉप और मिनी स्‍कर्ट निकाल लिया। एड्रेनैलिन बढ़ा हुआ था। तीनों लड़कियाँ तीन रंग के मिनीज में घुस चुकी थीं। उनके मैचिंग बूट्स, हैंड पर्स और ब्लैक गोगल्स खिदमत में हाजिर हो गये थे। लिपस्टिक ने लम्बा वक्त लिया, पहले मैच होने में, और फिर उन उन्माद भरे होंठों के एक-एक मिलीमीटर को आच्छादित करने में, जिससे उनका रसीलापन और मादकता, उभर कर सामने आ जाये। अंग्रेजी के ‘ओ’ आकार में देर तक सिमटे होंठ शीशे में अपने को तराशते निहारते रहे और जब संतुष्ट हुए तो एक चुम्मे की आवाज करके सामान्य हुए। जल्दी निकलने को बेकरार लड़कियों को देखते-देखते, दीवाल घड़ी की मँझली सुई पूरा गोला नाच कर अपनी जगह वापस आ गयी थी।
  5. एक्वेरिया की लोकेशन वही थी, पर रास्ता लम्बा था, यह चांदनी को पता न था। निर्धारित समय होने वाला था। पब्लिक से पूछ-पूछ कर वे तेजी से चलने लगे थे। यह एक किलोमीटर भर लम्बी टनल थी, ऊपर से अर्द्धवृत्ताकार छत, जैसे शीशे की बनी हो। चारों तरफ रोशनी से चमकते-दमकते, विज्ञापनों के बड़े-बड़े पोस्टर आप से कुछ कह रहे थे। इस टनल में बहुत सारे लोग आ-जा रहे थे, मध्यम भीड़ थी, जिसमें निर्बाध चलना आसान नहीं था। मंदालसा और पल्लवी इस भागदौड़ से बचना चाह रही थी, पर चांदनी घोड़ी हुई जा रही थी। आखिर यह कोई सुबह की जॉगिंग नहीं थी कि बस दौड़ लिया जाए। एक अरसा हो गया था भरी पब्लिक में दौड़े हुए। पब्लिक स्पेस में इस तरह दौड़ लगाने के लिए शरीर के पोर-पोर से बेतकल्लुफी का रस छलक-छलक कर बहना चाहिए। कहाँ तो वे भरपूर औरत, एक-दो बच्चों की माएँ, उम्र से तीस पार, वरिष्ठ सरकारी अधिकारी, तिस पर दौड़ने की क्रिया में ऊपर को सरकता मिनी स्कर्ट और टॉप में दोलन करता वक्ष। भला कैसे हो सकता था? इतनी बेड़ियों से मन मस्तिष्क कैसे आज़ाद हो सकता था? आखिर यह कोई जान बचाने के लिए भागने जैसा तो था नहीं। यह बेफिक्री और आह्लाद की दौड़ जो होती। चांदनी बार-बार उन्हें उकसा रही थी, उसके ऊपर एक जिम्मेदारी तारी थी या थ्रेशहोल्ड वह पहले पार कर चुकी थी, पता नहीं। हौसले का पारा, जो चढ़-चढ़ कर धड़ाम से गिर जाता था, वह अब चढ़ने लगा था। एक्वेरिया की टाइमिंग मिस होने की इतनी फिकर नहीं थी, जितनी कशमकश इस वक्त मन के दहलीज के पार, खुले आसमान को गले लगायें या इधर रुक जाएँ, की हो रही थी। वह एक क्षण था मात्र, एक दुर्लभ क्षण, एक सृजक क्षण बस, जिसमें ऐतिहासिक होने की क्षमता थी। मंदालसा ने उलझनों के बोझ को अपने सर से उठा कर किनारे फेंक दिया। उसने पल्लवी का हाथ पकड़ा और उसे दौड़ने के लिए खींच लिया। सेकंडों में आँखों का आँखों से संवाद हुआ और वह भी दौड़ पड़ी।

पढ़ाई से इंजीनियर , व्यवसाय से ब्यूरोक्रेट तथा फितरत से साहित्यकार हैं ‘ रणविजय’।

किसी को भी नाराज ना कर
    पाने की आदत एक दिन
   आप को स्वयं से नाराज कर देती है |

-रणविजय

( भोर: उसके हिस्से की )