अक्सर ही देखता हूँ कि लेखन और भाषा ज्ञान की एक सार्थक बहस चल रही है। कुछ लोग हमेशा
भाषा सम्प्रेषण का माध्यम है, साहित्य वस्तु है जो सम्प्रेषित होनी है। भाषा वस्त्र है, साहित्य शरीर और आत्मा है।
Creativity एक ईष्वर प्रदत्त उपहार है, जिसको एक्सप्रेस करने के लिए हम भाषा का सहारा लेते हैं, लेखक के तौर पर उसको सही उतार लेने के लिए जो भी माध्यम सुलभ मिलेगा वह ले लेगा। सजग लेखक भाषा का प्रयोग चरित्र की होने वाली भाषा के अनुसार करेगा। पर यहां पाठक गौण नही है, मज़ा तभी है, जब जो लेखक कहना चाहता है, वही अर्थ व्यंजना पाठक को मिले। मैला आँचल, मित्रो मरजानी की भाषा सबके लिए समझना आसान नही है। परन्तु पढ़ी खूब गयी हैं।
अब बात आई व्याकरण की, किसी विशिष्ट भाषा का कम ज्ञान होना चल जाता है, पर व्याकरण का कम होना बिल्कुल भी अच्छा नही है। ये शायद प्रूफ रीडर भी नही ढूंढ पायेगा क्योंकि वह रोबोट मोड में वर्तनी शुद्ध करता चलता है । क्या desired अर्थ है क्या अन्विति है , ये उसको नही पता इसलिए अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है।
शुद्धता का कोई जोड़ नही। पर ज़्यादा संस्कारों, व्याकरणों, तत्समो में कसी हुई भाषा साहित्य में सही भाव भी नही पहुचा पाती और लेखक , पाठक दोनों को जो हमेशा नयापन खोजते हैं, वो भी नही मिलता।
चित्र – साभार इंटरनेट से