#रिपेयर
मेरे पैंट के पांयचे की सिलाई खुल गयी तो मैं दर्जी के पास गया, उसने सिरे से ही मना कर दिया कि रिपेयर का काम हम नही करते। केवल नया सिलते हैं , नुक्कड़ पर किसी गुमटी में देख लीजिए, वो कर देगा। मतलब यह था कि ये काम कोई नौसिखिया या टुटहा टेलर करेगा। मुझे मलाल हुआ कि काश मैं रसूख वाला होता और दर्जी से मेरा दुआ सलाम होता, तो गैरत को यूं सरेशाम जूते न लगते। बहरहाल..
बचपन मे रिपेयर भी एक उद्यम था, जिस से करने वालों की आजीविका चलती थी और कराने वाले का बजट सही रहता। गांव गांव में छाता, कड़ाही, कुकर, सीटी, चप्पल सिलाई, चप्पल की बद्धी बदलाई, ताला , बैग चैन इत्यादि।
कुछ भी सामान बिगड़ा तो रिपेयर ही सोचते थे, अब बदल देते हैं। ऐसा क्यों हुआ?
रुपये का अवमूल्यन हुआ, सामानों के दाम सापेक्ष रूप में कम हुए और हमारी खरीद क्षमता बढ़ गयी। इसका एक निहितार्थ ये भी है कि गरीबी घट गई, शोबाज़ी बढ़ गयी, संसाधनों का उचित दोहन खत्म हुआ और इस तरह के उद्यमियो की आजीविका टूट गयी। इस हुनर से वे अब नही जी सकते।
जीवन चक्र हमे फिर से रिपेयर age में पहुचा सकता है।
आपकी क्या राय है? और कौन सी वस्तुओँ का रिपेयर आपने कराया या चाहते हैं कि होते रहना चाहिए।