मेरा गांव मेरा देश

मेरा गांव मेरा देश

इस बार गांवों में घूमते हुए , बढ़ते शहरीकरण ने परेशान किया। जो सबसे ज़्यादा दुखदायी था वो घने जंगलों और बागों का गायब होना या विरल होना। तालाबों का गायब होना। मेरा बचपन अपने, नानी के, और बुआओ इत्यादि के गांवों में कई कई दिन रह कर बीता।पढ़ाई , इंजीनियरिंग,नौकरी के चक्कर मे बहुत बहुत साल बाहर रह गया। अब जब लौट कर देखता हूँ तो ह्रदय में शूल चुभते हैं। जिन पेड़ों पर चढ़ कर आम हिलाए, जामुन खाये, या डंडों वाला खेल खेला, वो सब गायब हो गए। जिन बागों में जेठ की दुपहरी में भी धूप भेद कर ज़मीन नही पहुच पाती थी, वहां अब पूस में भी धूप का राज़ है। जिन तालाबों में तैर कर मिट्टी लोट कर हम बड़े हुए, वो समतल हो खेत बन गए। बागों में भी खेत बन गए। जनसंख्या का भयंकर दबाव और अर्जन के साधन की चाह ने हमे बदल दिया है।
अशिक्षित व्यक्ति परम्परावादी था।पर कम शिक्षा ने बहुत खतरे पैदा किये। आम ग्रेजुएट खेत मे काम नही करना चाहता, और वो कुछ इसके अलावा भी नही कर सकता। जानवर अब नाम मात्र रह गए हैं। केवल भैंस ही दिखती है। बैलों का तो पालन खाली कटने के लिए हो रहा है। हमने अपना इकोसिस्टम छेड़ तो दिया है, पर हमें पता नही इसका दीर्घकालिक असर क्या होगा।

पढ़ाई से इंजीनियर , व्यवसाय से ब्यूरोक्रेट तथा फितरत से साहित्यकार हैं ‘ रणविजय’।

वर्दी वाले बहुत कुछ मैनेज कर सकते हैं, ख़ास कर जो चीज अवैध हो।

-रणविजय

( भोर: उसके हिस्से की )