‘Vanchit’ first story from my book ‘dard manjta hai’

‘Vanchit’ first story from my book ‘dard manjta hai’

वंचित

ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था, पिछले 2-4 बर्षो में यह रीतापन उसे बार बार महसूस होने लगा था । अशोका होटल के बार में एक कोने में 4 दोस्त आज फिर बैठे थे, अंधेरी रोशनी तथा धुएं से सुगन्धित माहौल में। बार की नियति में अंधेरें में रहना ही है। रूक रूक कर कहकहे किसी न किसी कोने से आते थे। संसार रोज यहॉ उत्सव सा ही होता है। आदमी लाख उदासियों का बोझ लेकर आये, पर धीरे धीरे हलका हो जाता है। पहले हॅस कर, और कभी कभी बेहद करीबी मित्रों से रोकर। परंतु ये बार हर बार अपना कर्त्यव्य मुकम्मल पूरा करता है।

विनीत और उसके अन्य तीन मित्र आज कई वर्षो बाद मिले हैं । इन लोगों ने बैंक की नौकरी अधिकारी के रूप में एक साथ ही ज्वाइन की थी। इस बात को अब 20 वर्ष हो गये है और जिन्दगी की दौड़ में भागते भागते organisation बदलते हुए फिर वापस उसी organization में सीनियर positions पर आ गये है। विनीत ने ज्यादा तरक्की की है पर उसके अन्य मित्र भी ज्यादा पीछे नही है।

आज दिन में एक global seminar था , बैकों के भविष्य के उपर। जिसमें सम्मिलित होने के लिए ये लोग आये थे। माहौल सुबह से ही बनने लगा था। उन पुराने दिनों कि खातिर, यादों को ताजा करने के लिए मिलना ही होगा, रात में। सेमीनार की भीड़ में बहुत सारे परिचित, प्रतिद्वंदी और हमराही मिले। जिनके चेहरों पर परिचय की मुस्कान, घृणा, वितृष्णा या पहचान की चमक के पूर्व ही ओढ़ा हुआ रूखा अजनवीपन देखने को मिला। कारपोरेट जिन्दगी का ये अहम हिस्सा है। मानवीयता का सरोकार तभी तक ,जब तक आप मेरे रास्ते में नहीं है और यदि आप मेरी प्राप्ति का कुछ साधन हो सकते है तो आप पर सारा समय न्यौछावर है।

11 बजे के प्रथम tea break में विनीत ने गौर किया कि दूर वाले सोफे पर प्याजी सिल्क साड़ी में बैठी हुई स्त्री मानसी ही है। मानसी के एक हाथ में कप था वही कारपोरेट जैसा सफेद चौड़ा मुंह वाला। सुन्दर, पतली ,गोरी बाहें, स्लीवलेस ब्लाउज में कंधो तक खुली हुई। वो एक अधपकी दाढ़ी वाले व्यक्ति से कुछ यूॅ बाते कर रही थी जैसे उनका मिलना जुलना अक्सर न होता हो, परंतु इस तरह की गैदरिंग में हो जाता हो। उनकी बातों में जबरदस्ती संकुचित हॅसने की आवृत्ति काफी थी। वे जल्दी से कहना चाहते थे और हॅसना चाहते थे। धैर्य से सुनने वाली आत्मीयता नहीं थी।

वेटर ने अचानक लाकर तमाम तरह के बिस्कुटों की ट्रे उसके मुंह के सामने कर दिया और फिर बड़ी दीनता से मुस्कुराया, “Biscuits please, sir!”. विनीत ने साधारण औपचारिक मुस्कान से “no thanks” कह कर उसे आगे जाने का इशारा किया। अक्टूबर का महीना था परंतु फिर भी हाल में ए.सी. चल रहा था। सब तरफ कहकहों का शोर था। ज्यादातर bank professionals एक ही जैसे ड्रेस में थें सफेद शर्ट, रंगीन striped tie, गहरे काले, grey रंग के सूट और काले जूते। कुछ ही लोग थोड़े informal कपड़ो में थे, वे शायद बैकं इंडस्ट्री के नामचीन लोगो में से थे, क्योंकि उनके इर्दगिर्द कहकहों का शोर ज्यादा था।

जब आप किसी को लगातार देख रहे हों तो उसको किसी तरीके से सूचना हो ही जाती है। चाहे आप उसको पीछे से ही क्यों न देख रहे हों । मानसी लगभग उससे 20 फीट दूर बैठी थी और उस हाल में लोग लगातार आ जा रहे थे । ये हाल कुछ अर्द्ववृत्ताकार है, जिसका फैलाव काफी विस्तृत है। दीवालों के पास सोफे लगे हुए हैं और कुछ सोफे विपरीत दिशा में यूँ ही रखे गये हैं । ऊपर छत में 20-25 फीट ऊपर लोहे की मोटी मोटी पाइपें है जो truss बनाकर छत को सॅभाले हुए है।air conditioning ducts से जगह जगह इस विस्तृत भवन को अंतर्राष्ट्रीय स्तर के conference, seminar करने के लिए बनाया गया है।

मानसी ने नोट किया कि दो ऑखें लगातार उसे देख रहीं है, एक पल को नजरें मिली फिर जैसे छिटकते हुए हट गयी। मानसी की मुस्कुराहट अचानक लुप्त हो गयी और लगभग वार्तालाप बन्द करते हुए वो एक तरफ को तेजी से चली गयी।

चारों ने एक साथ ग्लास उठाया और लगभग उद्घोषणा के अंदाज में चीयर्स किया, चीयर्स पुराने दिनों एवं दोस्ती के नाम। चीयर्स इतने जोर से बोला गया था कि आसपास के लोगो ने मुड़ मुड़ कर तीखी निगाहों से देखा कि कौन हुल्लड़बाज यहॉ आये हैं ? फिर वही बडे़ शहरों का परिचित जुमला ”disgusting“ के साथ सिर हिलाते हुए पुनः अपने गिलास में रम गये। नयी उम्र के लोगो ने उत्सुकतावश देर तक देखा और समभाव से मुस्कुरा दिये।

1997 में 30 लोगों ने एक साथ training join किया था। private sector के बैंक धीरे धीरे इस देश में दखल दे चुके थे और सरकारी बैकों को अच्छी टक्कर दे रहे थे । सभी लोग अच्छी संस्थाओं से MBA किए हुए प्रतिभाशाली लोग थे, 20 लड़के, 10 लड़कियॉ सब 23-28 वर्ष की आयु के लगभग। विनीत, अशोक मंडल, मनोज गॉगुली एवं मृणाल खांडेकर सब प्रथम बार वहीं मिले थे। 6 महीने के training में सबकी जिन्दगी एक दूसरे से साझा हो रही थी। ये कहना गलत न होगा कि ये सब बहुत अच्छे मित्र थे। संभवतः ये कहना सही होगा कि मित्रता करने की उम्र की दहलीज वो पार कर चुके थे। अब सारी चीज relation of convenience या give and take के दर्शन से ही चलती थी। 6 माह का समय भी बहुत ज्यादा नहीं होता है ,इसके बाद तो सबकी दूर दूर पोस्टिंग हो गयी।

2002 में जब विनीत की शादी लखनऊ में हुयी थी तो उसके कुछ batchmates उसमें शामिल हुए थे। विनीत- साधना की मैरिज photograph में पीछे उद्दंडता पूर्वक मुस्कराते हुए कुछ लोगों की फोटो दिख जाती है। तब तक काफी लोग शादी शुदा हो चुके थे। इन चारों में से केवल मृणाल खांडेकर ही उस शादी में शामिल हो पाया था। विनीत थोड़ा शांत प्रवृत्ति का व्यक्ति था। वो बोलता कम था। मृणाल शादी के बाद कुछ दिन तक लखनऊ में रूक गया। वो और उसकी पत्नी लखनऊ घूमना चाहते थे। इस दौरान थोड़ा वक्त विनीत और साधना के साथ भी गुजरा। साधना सुन्दर लड़की थी, बोलती ऑखों वाली। ऐसा नहीं था कि वो केवल ऑखों से ही बोलती थी। वो ऐसे भी दिल की बड़ी साफ तथा extrovert किस्म की बातूनी लड़की थी। विनीत के स्वीभाव से काफी उलट।

अभी पहला जाम चढ़ रहा था। professional issues पर बातें शुरू हो चुकी थी। नौकरी में बढ़ते हुए targets और business का pressure सभी लोगो पर था। प्राइवेट कम्पनियों में काम करने में एक आम बात यह देखी जाती है कि लोग जल्दी जल्दी एक संस्था से दूसरी संस्था बदलते रहते है। इससे उन्हें अच्छा raise (बढ़ी हुई तनख्वाह) मिलता है ,परंतु उसी के साथ बढ़ा हुआ pressure भी। हर बदलाव और रेज के साथ यह और बढ़ जाता है। इंसानी मशीन बहुत flexible और adjustable होती है खासकर अपनी जवानी के दिनों में। यदि एक मेढ़क को गर्म पानी में अचानक डाल दो तो वह तुरंत कुद कर बाहर आ जायेगा, पंरतु यदि उसे पानी में डाल कर धीरे धीरे गरम करो तो वह बाहर नहीं कूदता। शायद उसी में मर जाये पर हमेशा adjust करने के प्रयास में रहता है। शायद वैसा ही परिवेश आजकल नौकरियों का हो गया है। इतने वर्षो की नौकरी में कई bosses सभी के जानने वाले हो गये है। उनके बारे में आज चुन चुन कर चर्चा हो रही है। boss की निंदा करना परम आनन्द है, यह शाश्वत सत्यों में से एक है। दूसरा है , हर पुरानी नौकरी, वर्तमान नौकरी से अच्छी थी।

बार में आने जाने वालों का क्रम चलता रहता है। आने वाला हर व्यक्ति अजनवी सा रहता है पर जाते वक्त नजर मिलते ही पहचान की मुस्कान देकर जाता है। कुछ लोग तो हाथ हिलाकर और bye and see you कह कर भी जाते हैं। इस बीच गिलास में दूसरा पैग आ चुका है। रात में 9.30 बज चुके है। अशोक के मोबाइल पर घंण्टी बजी तो वो फोन पर बात करते करते बाहर चला गया।

बातों ही बातों में मनोज ने पूछ लिया कि लंच में विनीत किस लेडी से बात कर रहा था। विनीत इस पर थोड़ा असहज हो गया। मृणाल और मनोज दोनो ने यह महसूस किया। इसलिए वे उसे और छेड़ने लगे। वास्तव में टी ब्रेक के बाद विनीत ने निष्चय किया कि वो मानसी से मिलेगा।

बात दरअसल 2007 के आस पास का है, जब विनीत का ट्रांसफर भोपाल हो गया था। विनीत का परिवार लखनऊ में बसा है और साधना का भी। साधना एल.आई.सी. में आफीसर है विनीत के भोपाल ट्रांसफर होने से घर अस्त व्यस्त हो रहा था। उसकी बड़ी बेटी 4 वर्ष की तथा छोटा बेटा 2 वर्ष का था, ये ट्रांसफर अप्रत्याशित था। विनीत के सास ससुर ने साधना और विनीत से बात की कि या तो वो ट्रांसफर कैंसिल कराये अथवा आस पास कराये या फिर साधना को भी साथ ले जाये। इतने छोटे बच्चों के साथ साधना का अकेले मैनेंज कर पाना संभव नहीं है। पर वो अलग ही किस्म का प्राणी था। यदि वो ट्रांसफर पर नहीं जाता तो उसको ये promotion छोड़ना पड़ता। भोपाल में उसे उस बिजनेस वर्टिकल का second lead बनाया गया था, जो कि आगे बढ़ने के लिए आवश्यक था। साधना को वो यहॉ से इसलिए नहीं ले जाना चाहता था क्योंकि उसके अपने घर में उसके अलावा उसके मॉ बाप की देखभाल करने वाला कोई नहीं था। साधना के होने से उसकी निश्चिंतता थी।

शादी के 5 वर्षो में साधना धीरे धीरे अपने पति को समझने लगी थी। विनीत क्योकि बोलता कम था इसलिए उसके बारे में काफी चीजें गुप्त रह जाती थी । साधना दिन भर चहकती रहती थी। वो पहाड़ो से निकली उफनती नदी की तरह थी ,सब कुछ अपने आगोश में भर लेने को बेताब और सब को अपने साथ चलाती हुयी, वो बही जा रही थी। 5 ही वर्षो में जैसे वो मैदानो में आ गयी हो। ये तो बड़ी ही छोटी अवधि है। नदी नियंत्रित हो गयी धारांयें रूद्व हो गयी, गोद में अथाह गाद, कंकड़, मिट्टी और न जाने क्या क्या आ गया। उसकी जीवन शक्ति का तीव्र ह्रास हआ। वो कुम्हलाने लगी, उस पर गृहस्थी, दो बच्चों, सास ससुर की सेवा, और demanding नौकरी का चौतरफा भार आ गया। विनीत की जॉब में touring बहुत थी। शादी में दो सालों बाद ही लगभग दो महीने में 10-15 दिन छोटी छोटी अवधियों के लिए टूर पर आता जाता रहता था। घर के, बाहर के लगभग सभी कार्य धीरे धीरे साधना की जिम्मेदारी बन गये। उसने साधना को समझा दिया कि भोपाल में वो ज्यादा दिन नहीं रहेगा। शीघ्र ही वो पुनः ट्रांसफर लेकर लखनऊ वापस आ जायेगा। उनके बीच में संवाद शनैः शनैः काफी कम हो गया था।

विनीत ने भोपाल आकर ज्वाइन कर लिया। भोपाल शहर लखनऊ जैसा ही था। बोली- वोली थोड़ी अलग थी ,परंतु लोगो का रहन सहन उसी अंदाज का था। इसलिए शहर में उसे adjust होने में ज्यादा वक्त न लगा। कार्यालय के पास ही एक होटल में उसने अपना ठिकाना बना लिया, और लगभग दिन रात कार्य करने लगा। लखनऊ से लगातार दूर रहने का यह पहला मौका था। महीने में एक संडे को लखनऊ भी बच्चों को देखने चला आता था। साधना ने अपने बिजी वक्त से वक्त निकालकर विनीत को सुबह शाम फोन करने की कोशिश की. विनीत से बात लगभग 1-2 मिनट में ही खत्म हो जाती। बिल्कुल business professionals की तरह। सामान्य शिष्टाचार में कैसे हो, मॉ पापा, बच्चे कैसे है इत्यादि, खाना खाया, क्या खाया जैसे सवाल फिजूल थे . इस का जवाब काफी पहले ही प्रतिबंधित हो गया था। जब विनीत टूर पर जाता था तो केवल ऐक मैसेज भेज दिया करता था। साधना ने जब जब जानना चहा कि कब जाना होगा और कब आना होगा? तब इसका जवाब उसको हमेशा चिड़चिडाहट में मिला और जल्दी ही फोन रखवा दिया गया। कभी कभी साधना ने प्रयास किया कि विनीत उसे भी अपने साथ ले जाये पर इस बात पर विनीत ने फौरन झिड़क दिया कि official कार्य में personal चीजें न घुसाई जाए। जब भी आवश्यकता होगी तो वो लोग अलग से जायेगें।

मानसी काफी जूनियर कर्मचारी थी। हाल ही में graduate होने के बाद temporary तौर पर उसको भोपाल की एक ब्रांच में रखा गया था। वो लम्बी, दुबली और आकर्षक थी। उसके पास ऐसा व्यक्त्तिव था कि उससे मिलने पर वो कहीं अंकित जरूर रह जाता था। उसकी ब्रांच पर जब विनीत ने विजिट किया तो ब्रांच हेड की जगह ज्यादातर बातें मानसी ने किया। ऐसा लगता था जैसे कि वहॉ का बिजनेस वहीं हैन्डल करती हो। वैसे ये बड़ी छोटी ब्रांच थी।

छोटी ब्रांच होने के बावजूद वहॉ ठीक ठाक प्रतिशत में बिजनेस हो रहा था। अनुभवी रसोइये की तरह विनीत को समझते देर न लगी कि पकवान इतना बढ़िया कैसे बना है। मानसी विनम्र और आत्मविश्वास से लवरेज थी। उसकी मुस्कुराहटों में सम्मोहन था। वो अक्सर मुस्कुराती रहती थी। विनीत की ये विजिट कुल 45 मिनट की ही थी परंतु उसके मन पर एक अमिट छाप छोड़ गयी ,मानसी।

भोपाल में उसके आफिस का नया सेटअप था। business prospects देखते हुए बैंक ने ये नया vertical का regional office यहाँ खोल दिया था। उसको अपने आफिस में 2 assistants की आवश्यकता थी जो उसको contract पर recruit करने थें। उसने सोचा कि अगर मानसी जैसी बुद्विमान लड़की उसकी assistant बन जाये तो उसका काम काफी आसान हो जाये। उसने पहले दिन मानसी के लिए बुलावा भेजा।

पीले रंग का सलवार सूट, पटियाला स्टाइल का उस पर बहुत फब रहा था। उस पर contrast लाल रंग का सिफान का दुपट्टा घुटनों के नीचे हवा में उड़ रहा था। मानसी हमेशा दुपट्टे को मफलर की तरह रखती थी एक सिरा आगे और गर्दन में एक लपेट मार कर दूसरा सिरा पीठ पर पीछे, ये उसका अपना ही अंदाज था और उस पर बहुत सुंदर लगता था। उसको जरा सा हिंट इस बात का था कि विनीत सर उसको अपने कार्यालय में रखना चाहतें है। ये उसके लिए एक स्वर्णिम भविष्य के दरवाजे की तरह था और वो इसको किसी भी सूरत में खोना नहीं चाहती थी। उसकी लम्बी काया में मात्र मिली मीटर में ही मांसलता अभी आयी होगी जो उसके बदन को और कमनीय बना देते थे। जब उसने विनीत के केबिन में प्रवेश करने के लिए दरवाजा खोल कर हौले से पूछा-
“ May I come in, Sir”
तो विनीत ने सिर उठा कर ऊपर देखा और अपलक देखता रह गया। उसके चेहरे की चमक बढ़ गयी और फिर अचानक याद आया तो बोलने लगा
“ yes please, come in. Have a seat ”
मानसी मुस्कुराती हुयी आकर बैठ गयी। उसने जाना कि boss उसको देख कर प्रसन्न हुआ है। विनीत ने थोड़ा सध कर नियंत्रित तरीके से उससे बात करना शुरू किया। मानसी के लिए तत्काल regional office में ज्वाइन करने के लिए आदेश निकाल दिये गये और बैठने के लिए एक कैबिन जो कि विनीत के कैबिन के पास ही था, शेयर करा दिया गया।

मानसी ने जल्दी ही सीख लिया कि boss को काम में क्या चहिए और किस तरह का चाहिए। मानसी का घर बीना में था, वो भोपाल में एक shared appartment में रहती थी। उसके साथ तीन और लडकियॉ भी रहती थी। उसको आने जाने में असुविधा होती थी। विनीत ने उसको पास ही में एक छोटा apartment लीज स्वीकृत किया। अब मानसी के लिए आफिस में देर तक रूकना आसान हो गया। धीरे धीरे विनीत मानसी को सभी टूर पर अपने साथ ले जाने लगा। होटल में कमरे दो ही बुक होते थे पर प्रयोग एक ही होता था। मानसी ने अपनी योग्यताएँ दिखाने और सेवाएॅं देने में कोई कमी न की। उसने उसका professional व personal दोनो तरीको से ख्याल रखा। विनीत को काफी रातें अब मानसी के apartment में ही गुजरने लगी। मानसी को ये भलीभांति पता था कि विनीत शादीशुदा है और उसके दो बच्चे है। पर उसका कैरियर तो अभी उठना शुरू हुआ था इसलिए वो इस रेस में आगे बढने के लिए कोई कसर छोड़ना नही चाहती थी। भोपाल के 4 वर्ष के प्रवास में मानसी एक executive के पद तक पहुच गयी और विनीत के पास ही उसको cabin मिल गया। इस दौरान साधना अपने सास ससुर और बच्चों की सेवा में ही खटती रही। समय कब इतना आगे बढ़ गया, उसको पता ही नही चला। विनीत ने अपने चारो तरफ काम का प्रेशर, ज्यादा बात न करना और गोपनीयता का जो आवरण ओढ़ रखा था उससे कभी भी ये पता न चला कि इस समय अन्तराल में उसकी जिन्दगी के साथ क्या क्या हो गया। 4 वर्ष बाद जब पुनः विनीत का ट्रांसफर होने लगा तो उसने मानसी का भी करवाना चाहा पर मानसी ने मना कर दिया। उसने अपने मॉ बाप से बहुत दूर जाने से साफ मना कर दिया। वास्तविकता यह थी कि उसको अब विनीत से छुटकारा चाहिए था। उसको विनीत से इतना ही मिल सकता था। ऐसी परिस्थतियों में विनीत ने लखनऊ वापस जाना निश्चित किया और अपना स्थानांतरण लखनऊ करवा लिया।

तीसरा पेग गिलास में सज कर आ चुका था। संकोच का बॉध धीरे धीरे खुल रहा था। मनोज की ऑखो में एक शरारत अठखेलियॉ कर रही थी, उसने सवाल विनीत की तरफ पुनः फेंक दिया।
”वो लंचटाइम में जिससे तू बात कर रहा था वो लेडी कौन थी?।”न बताने का भी कोई कारण नही था और ज्यादा बताने का भी।
विनीत ने रूखाई से कहा ”AGM है,ING वैश्य बैंक मे, मानसी शर्मा नाम है…….. पहले मेरे साथ काम करती थी, भोपाल में

मृणाल ने कंमेट किया -”सुन्दर थी।………. तब और रही होगी….।“
विनीत चुप रहा।

आज जब लंचटाइम में वो बाहर आया तो बड़ी ही सतर्कता से मानसी को ढूॅढने लगा। उसके दोस्त खाने की प्लेटों के पास पहुच गये थे।पर वो कुछ इस तरह घूम रहा था जिससे कोई यह भी न कह सके कि वो किसी को ढूढ रहा है। आखिर उसने लक्षित कर ही लिया कि वो कहॉ है। उसकी चमकती पीठ दूर से ही उसको दिखाई दे गयी। अब वो छोटे बाल रखने लगी है, executive अंदाज वाले जिन्हे bob cut भी कहा जा सकता है। वो तीन चार लोगों से एक साथ बात कर रही थी जो ठहाको से सजी हुयी थी। उसके हाथ में भी खाने की प्लेट थी। उसके पास पहुचकर विनीत धीरे से बोला –
”हाय मानसी ! हलो सर……………बहुत दिनों बाद…….,” मानसी थोड़ी बनावटी सी मुस्कुराई फिर बोली-
” आप तो लखनऊ जाने के बाद हमें भूल ही गये”। और फिर खिलखिला कर हॅंस पड़ी। उसकी हॅसी को और पुरजोर बनाया साथ वालो ने। इस बात से एक टीस सी हुयी। वास्तविकता ये थी कि विनीत ने कोशिश की कि रिश्ता कायम रहे पर मानसी ने ही अनमना व्यवहार किया। ऐसा भी न था कि विनीत को उससे कोई प्रेम था परंतु फिर भी उसको ये रिश्ता कायम रखने में एक लाभ ही था। कुछ महीनों पश्चात मानसी ने उसके फोन उठाने बंद कर दिये और बाद में बैंक बदल कर वो मुम्बई चली गयी। जिसके बाद contact खत्म हो गया। तब से आज तक उसको एक पश्चाताप रहा जिसको जमीन से उठाकर उसने बुलंदियों तक पहुचाया, आखिर उसने उसकी अवहेलना क्यों की? मानसी का मानना ये था कि विनीत केवल उसका माध्यम था , वो जहॉ भी पहुची वे उसके योग्य थी। विनीत ने उसका प्रयोग जरूर किया है । ये सौदा तराजू के कॉटों पर बराबर था, उसके अहसानो का पलड़ा भारी नहीं था। बहुत औपचारिक तरीके से उन पॉच लोगो का आपस में परिचय हुआ और वैसे ही औपचारिक तरीके से बातचीत हुयी। मानसी ने पुरानी अंततरंगता को कहीं भी उभरने न दिया और अततः excuse me कह कर पता नहीं कहॉ चली गयी।

अशोक अभी लौटा ही था, उसको गये हुए 15 मिनट हो चुके थें. उसका दूसरा पेग बन कर रखा हुआ था। आते ही उसने मुस्कुराकर कहा-
” अरे यार बीबी का फोन था,………. वही रोज की बातचीत….. कहॉ हो?,….. कौन- कौन मिला?, क्या हुआ टाइप्स।“
एक परिचित मुस्कान सभी के चेहरों पर चमक गयी ,सिवाय विनीत के। मनोज और मृणाल ये बात लक्षित कर चुके थे कि विनीत मानसी के बारे में बताने से कतरा रहा है। ऐसा लगने लगा जैसे चोर की दाढ़ी में तिनका है। उम्र और दोस्ती के लिहाज से अब इतनी परिवक्तता आ चुकी है .आदमी बड़ी जल्दी अपनी सीमॉए पहचान लेता है और समय के साथ यह दायरा संकुचित ही होता रहता है। twenties के दिनों में तो अब तक इस बात का बतंगड बन जाता। उल्टी सीधी दोस्ती की कसमें एवं दुहाई देकर सामने वाले को प्रेरित किया जाता, और सामने वाला भी भावुकता की उसी नदी में बहता और आखिर शब्दशः सब बताता। परंतु उन भावनाओं में बड़ी शुद्वता थी। बड़े बड़े राज बड़ी आसानी से दोस्ती के नाम, लोगों के सीने में दफन हो जाया करते। आज पूछने और बताने वाले ,दोनो ने उन वर्जनाओं का अतिक्रमण न करने का फैसला जरूर लिया है, परंतु ये निश्चित है कि अगर बात मालूम हो जाये तो शायद वे लोग उपदेश देने लगे या इसका प्रसार करने लगे या फिर एक वितृष्णा की भावना से ही उसको देखने लगें।

बहुत ही धीमें सुरों में जगजीत सिंह की गजल बज रही थी। लोग बीच बीच में जगजीत सिंह के साथ सुर मिला कर गाने लगते थे. कोई कोई अपनी ऑखे बंद कर के अपनी गर्दन दोनो तरफ हिलाने लगता था जैसे कि वो गीत में वास्तविकता में डूब गया हो। मृणाल और अशोक आपस में कुछ बात कर रहे थे। विनीत ज्यादातर समय मोबाइल में संदेश पढ़ने या भेजने में व्यस्त दिख रहा था।
लखनऊ में 2011 में पदार्पण के पश्चात विनीत ने दो तीन बार organisation बदला। पिछले पॉच सालो में उसके छोटे मोटे कई अफेयर बनते बिगड़ते रहे। जो उसके job nature की वजह से असानी से हो जाते थे। टूरिंग जाब में अक्सर उसको अपने साथ assistant को लेकर जाना ही पड़ता था। और assistant को भी raise, promotion, facilities की परवाह हमेशा रहती थी। घर के बोझ से उसने अपने आपको फ्री कर लिया था और महीने में 12-15 दिन लगभग वह टूर पर ही रहता था।

किसी बात को लेकर मृणाल और अशोक मनोज को छेड रहे थे . वे ट्रेनिग के दिनों में उसकी आसक्ति अलका मजूमदार के बारे में टिप्पणी कर रहे थे। अलका उनके साथ में ही ट्रेनी थी। मनोज अब भी दिल में एक घाव लेकर घूम रहा है। अशोक एवं मृणाल उस घाव को फिर से हरा कर रहे हैं । इस कार्य में विनीत भी स्वभाव के अनुसार आंशिक रूप से शामिल हुआ। मनोज को भी मजा आ रहा था। तीन पेग का नशा आदमी के तमाम सुरक्षा कवच गिरा देता है और फिर वह अपना natural self बन जाता है , तमाम संकोच एवं आदर्शो के आवरण से दूर। इसी बीच में मृणाल का फोन बजने लगा। मृणाल बात करते करते बाहर चला गया। मनोज अपनी अधूरी एक तरफा प्रेम कहानी के कुछ अज्ञात अनसुने किस्से सुना रहा था। ये भी एक तरीका है अपने बोझ से हल्का हो जाने का। यादों का बोझ कभी कभी इतना हो जाता है कि आपको बेनूर कर देता है। ऑसू निकलने से ये हल्का नहीं होता, परंतु शब्दों के निकलने से हल्का हो जाता है।

चैथा पेग शुरू हो चुका था। मृणाल अभी अभी लौटा है। उसने स्वयं बताया कि घर से फोन था, घरवाली का। सामान्य रोज की बातचीत एवं हालचाल। क्योकि ये बात किसी के लिए विशेष न थी इसलिए किसी को कोई भी रूचि न थी। विनीत ने जरूर इस बात पर ध्यान दिया। रात के लगभग 10.15 बज रहे थे। माहौल में खुमारी आ गयी थी। चैथा पेग तेजी से खत्म हो गया। अब बन्ध खुल चुके थे हर बात जो होती थी वो लम्बी चलती थी। और यूँ लगने लगा था जैसे अपनापन बढ़ गया है। अब वे एक दूसरे को 20 वर्ष पुराने प्रिय नामों से सम्बोधित करने लगे थे ,जो उस वक्त इतने प्रिय न थे। पर आज न जाने क्यूँ इतने प्रिय हो गये थे। अशोक के तमाम ऐडवेंचर की कहानियॉ खुल रही थी। अशोक की प्रशिक्षण संस्थान की एक महिला प्रोफेसर पर आसक्ति हो गयी थी। वैसे तो रीता मैडम लगभग 35-40 वर्ष की तभी थी परंतु वे सुडौल,सुघड़ तरीके की maintained थी और उस उम्र के लोगो के लिए कल्पना स्रोत थीं । उस वक्त के हालात देखते हुए कहा नहीं जा सकता था कि अशोक की भावनाएं कितनी गहरी थी ? परंतु ये बात उस बैच के कुछ ही लोगों को मालूम थी कि रीता मैडम अशोक की crush हैं । 6 माह का वक्त देखते देखते निकल गया और उस के बाद जिन्दगी ने इस वाकये को हमेशा यादों के झरोखों से ही देखा। अशोक ने कबूल किया कि वो रीता मैडम के chamber मे उलटे सीधे सवाल, किताब, नोट इत्यादि के बहाने अक्सर जाता था। जो कि कुछ दिनों बाद उन्होनें भी अनुमान कर लिया. पर वो एक उदारमना स्त्री थी, अशोक की भावनाओं एवं अपनी मर्यादायों से भली भांति अवगत। वो उसको अपनी बातों से सहला भर देतीं थी और इसी कोमल अहसास में अशोक लहलहाने लगता था। परंतु प्रकट तौर पर अशोक कुछ कहने की हिमाकत न कर सका। वास्तव में इसका कोई फायदा भी न था ,जो वो भली भांति जानता था।

इस बार मनोज का फोन बजा। मनोज इस रसीले प्रकरण को छोड़ना नहीं चाहता था, उसने फोन काट दिया। मुश्किल से दो मिनट बाद दुबारा बज गया। मृणाल ने मनोज के चेहरे पर आयी सिकन देखकर पूछ लिया कि किसका फोन है। मनोज ने थोड़ी बेचैनी से बताया कि घर से है, बीबी का। अशोक ने ठहाके में कहा-
“ बात कर ले भाई क्यों शामत बुला रहा है अपनी। थोड़ी देर बाद यही topic फिर continue कर लेगें।“
इस बार सब तालियॉ मार कर हॅसे, इतने जोर से आस पास के लोगो ने पुनः पलट कर देखा। दो बुडढे कुछ भुनभुनाने लगे। इस पर विनीत ने हाथ ऊपर कर कुछ सॉरी के अंदाज में बोला और मुस्कुरा दिया। लोग सही कहते हैं मुसकुराहट में जादू होता है। और वो भी छुआछूत की तरह फैलती है। वे वृद्व भी मुस्कुरा उठे। मनोज फोन लेकर बाहर चला गया. बार में कहकहों एवं संगीत का शोर जारी था।

अब ऐसी ही खिंचाई मृणाल की होनी बाकी थी। मृणाल वैसे सीधा सादा प्यारा सा लड़का था। पर वो इकलौता ऐसा था जो training के दौरान शांत सा रहता था। रात में PCO जाकर बात करता था। रात 11 बजे के बाद STD काल पर दरें चौथाई हो जाती थी। उसके PCO में घुसने के बाद 30 मिनट तक engage हो जाता था। बाकी लोग उसको disturb नहीं करते थे क्योंकि सब जानते थे कि वो इकलौता भाग्यशाली व्यक्ति था, जिसके पास एक गर्लफ्रेंड थी। अंततः उसकी शादी एक मराठी लड़की से ही हुई। पर अपनी बंगाली गर्लफ्रेंड से उसकी continuity बहुत दिन चली। अशोक ने मृणाल को छेड़ दिया-
”भाई तेरी मौज रही……, तुने भाभी जी को कभी देवाश्री के बारे के बताया? ……..कहाँ है देवाश्री आजकल?

”उसको बताया नहीं”। मृणाल ने चौड़ी मुस्कान के साथ कहा फिर नजरें थोड़ी ऊपर कर ली जैसे किसी अन्य दुनिया में एक दम से राकेट से लांच कर दिया गया हो। अशोक ने उसको फिर कुरेदा। चैथा पेग खत्म हो गया था। शरीर हल्का हो चुका था। विनीत ने थोड़ा और मस्का लगाया तो मृणाल खुला। उसने बताया कि Training centre से निकलने के बाद उसको नागपुर में पोस्ट किया गया था। उसके घर में सभी लोग शुद्व शाकाहारी थे। माँ बाप ने सौगंध दे देकर नया रिश्ता जुड़वा दिया। देवाश्री की भी शादी बाद में हो गयी वो कलकत्ता में ही जॉब करती है. अब बात नहीं होती । इतना संक्षिप्त विवरण सुनकर कुछ बेस्वाद सा मुंह बन गया अशोक और विनीत का। परंतु मर्यादाएं पुनः आड़े आती रही। इसलिए चाह कर भी बहुत पर्सनल सवाल नही पूछा गया।

मनोज ने वापस आते ही अपना चैथा पेग खत्म कर दिया। और पाॅंचवाॅं पेग मॅगवा लिया गया। विनीत बीच बीच में मोबाइल में कुछ कुछ लिख देता था या पढ़ता रहता। परंतु अब उसे एक बेचैनी होने लगी। बारी बारी सभी के घरवालों से अथवा पत्नी से फोन पर बात हुयी। उसे तो जब से दिल्ली आया है तब से किसी ने फोन कर हाल चाल नहीं लिया। न उसने हमेशा की तरह स्वयं से बताया। उसके बच्चों तक का भी फोन नही आया। जबकि इन लोगों के बच्चे भी फोन पर बात कर चुके थे और कुछ फरमाईशें बता रहें थे. या मम्मियों की शिकायत ही पापा से कर रहे होते। पता नहीं क्यों उसे बाकी दोस्तो के हावभाव से भी कही ये खटक रहा था कि इसको किसी ने फोन नही किया। तो क्या इसका मतलब ये निकलेगा कि उसकी गुहस्थी मधुर नहीं चल रही है। या लोग उसकी हकीकत जान लेंगे और समझ जायेंगे कि क्यों उसको कोई नहीं याद कर रहा।

मृणाल ने पूछ ही लिया कि साधना भाभी की जॉब कैसी चल रही है? विनीत ने अति संक्षेप में इतना ही कहा-
”मस्त”। क्योकि उसके पास ज्यादा कहने को कुछ था नहीं। फिर उसने स्वयं बढकर बोला-
”मै भी अपने घर फोन करके हाल चाल ले लेता हूँ ”। मेरे घर से फोन आयेगा नहीं मुझे ही करना पड़ेगा। और फिर बनावटी अट्ठहास किया। बाकी तीनों ने भी मुस्कुराकर साथ दिया। अशोक ने फौरन टिप्पणी कर दी, कामकाजी औरत को फुर्सत ही कहॉ मिलती है? वो आपका घर भी देखती है, बच्चों को भी देखती है और उसके साथ ही involving जॉब भी करती है।
बात तो ठीक ही थी, परंतु विनीत को भलीभांति पता है कि साधना या उसके बच्चे उसे फोन क्यों नहीं करते।

फोन लगते ही वार्तालाप शुरू हुआ।
”हेलो”
”……हॉ जी” आश्चर्य मिश्रित भाव से।
”अरे मै सुबह 8 बजे पहॅच गया था” कुछ फुसफुसाते खिसियाते हुए विनीत बोला।
”……………….हूँ ”।
”अभी मेरे कुछ दोस्त मिल गये है, उन्ही के साथ कनाट प्लेस में एक बार में बैठे हैं.”
“….पर मुझे क्यों बता रहे हो?
”………………………………अरे यूँ ही बता रहा हूँ , …….बताना नही चाहिए था क्या?”
”आज तक तो कभी बताया नहीं आपने, कहॉ जा रहे हो? कब आओगें या कब पहॅचे?…. बच्चों से ही फोन करके पुछवाना पड़ता है, तो आज क्या हो गया…।“ स्वर में थोड़ी तल्खी थी।

विनीत झुंझलाने लगा,
”अरे बता रहा हूँ तो भी मुसीबत है”।
”अच्छा ठीक है।“ साधना ने सम्भालते हुए बोला।
”बच्चें कहॉ है?”
”बच्चों को मै सुला चुकी, सवेरे से स्कूल है ।“
”अच्छा……..”
”…………………..”.
”…………………….”
देर तक संवाद हीनता की शांति रही। ये लम्हा बड़ा भारी लगने लगा। विनीत कुछ निश्चय न कर पाया कि आगे क्या कहे।
”कल लौटॅूगा, …….शाम की फ्लाइट है, ……7 बजे तक घर”, सूचना के तौर पर विनीत ने जोड़ा
”हूँ ……………ठीक है।“ साधना ने तटस्थ सा जबाब दिया ।
”………………………………”
”………………………………” पनुः शांति।
”फोन रखूं ?”विनीत ने कुछ पटकते हुए से बोला।
”हॉ ठीक है, रख दीजिए। इतने सालो बाद ये सब जानकर ही मै क्या करूगीं।“
इसके बाद फोन काट दिया गया। उसकी झुंझलाहट उसके चेहरे पर पड़े बलों से साफ साफ दिखने लगी। वो बार में नही जाना चाहता था।एक सिगरेट जला ली, और ढेर सा धुआं निकालकर आसमान की तरफ छोड़ दिया। कुछ बुदबुदाते हुए सर को झटक दिया।

वो वापस बार के अंदर घुसा। उसकी चिंता की लकीरे देखकर मनोज ने पूछा- “ क्या घर में सब ठीक है।” विनीत जबरदस्ती मुस्कुराया और बोल पड़ा- ”हॉ सब ठीक है”। पर बाकी तीनो उसी को देख रहे थे जैसे पढ़ने की कोशिश कर रहें हो। विनीत आगे बोलने लगा कि बीबियों के दिमाग ठिकाने नहीं रहते ,ठीक से बात भी नहीं करती। इस बात पर थोड़ी ख़ामोशी के बाद सब हॅसे। वैसे अन्य तीनो इस बात को मानते नहीं थे, परंतु विनीत की परिस्थितियॉ उनसे अलग हो सकती है, ऐसा समझकर हॅसने में साथ निभाने लगे। अब विनीत का मोबाइल एक किनारें रख उठा था और फिर उसने बार से निकल कर होटल आने तक मोबाइल उठाया ही नहीं।

अंदर अंदर यही बार बार घुटता रहा कि ”आज तक वो बताया नही, तो अब क्यों?” तो क्या वो एकाकी जीवन व्यतीत कर रहा है। उसकी चिंता परवाह किसी को नहीं। मॉ, बाप, बीबी, बच्चें कोई भी आजकल नहीं जानना चाहता कि वो कहॉ है, कैसे है? वो कहीं दुर्घटना में मर जाये तो कुछ दिन किसी को पता भी न चलेगा। अब उसे कोई प्यार नही करता। वो इतना अवांछित बन गया है कि कोई उसे चाहता ही नहीं।

बार बार यहीं सवाल दिमाग में चलता रहा कि ”आज तक नहीं बताया, तो अब क्यो?”……..
”अब जानकर मैं क्या करूंगी ?”
ऐसा नहीं है कि इस तरह की फोन न आने वाली घटना आज पहली बार घटी हो। जब भी कभी इस तरह बाहर दोस्तों के साथ बैठना हुआ तब तब ये महसूस हुआ. परंतु आज दिन के सम्पूर्ण घटनाक्रम ने उसे कटोच दिया। ऐसा लगा जैसे सभी की भावनाओं की नदी उसके लिए सूख गयी है। बो बिना मंझा की कटी पतंग हो गया है, जिसको लूटने में भी अब किसी की रूचि नही रह गयी है। जो साधना, मानसी उस पर जान छिडकते थे अब उससे कतराने लगे हैं ।

मेरे कहानी संग्रह दर्द मॉन्जता है की प्रथम कहानी।

पढ़ाई से इंजीनियर , व्यवसाय से ब्यूरोक्रेट तथा फितरत से साहित्यकार हैं ‘ रणविजय’।

वर्दी वाले बहुत कुछ मैनेज कर सकते हैं, ख़ास कर जो चीज अवैध हो।

-रणविजय

( भोर: उसके हिस्से की )