एक नई कहानी का पहला पैरा..

एक नई कहानी का पहला पैरा..

अमनदीप कौर कंप्यूटर साइंस बीटेक फर्स्ट ईयर, बाबू बनारसी दास विश्वविद्यालय की 17 लड़कियों में से एक थी। पर वह एक ही   सबसे अलग थी। पंजाबियों जैसा गोरा दूधिया रंग और कसा भरा हुआ शरीर ,उसके ऊपर 17 वर्ष की अवस्था का जादू, ऐसे में उसकी क्लास के 23 लड़कों के लिए बहुत मुश्किल थी।   इंजीनियरिंग कॉलेज के फर्स्ट ईयर से फोर्थ ईयर तक लगभग 480 स्टूडेंट थे, जिनमें से ढाई सौ लड़के थे, उनके लिए भी वह एक साधना स्रोत थी। कॉलेज में हर क्लास के सीटिंग अरेंजमेंट में एक चेयर  होती थी ,जिसके राइट साइड में एक हत्था होता था और उस हत्थे पर आगे जाकर चौड़ाई बढ़ जाती थी ,जिससे वहां पर कॉपी रख कर लिखा जा सके। यह सुविधाजनक व्यवस्था सस्ती और टिकाऊ थी। उसकी क्लास में लगभग हर पीरियड में अटेंडेंस सौ पर्सेंट रहती थी ,जोकि  इंजीनियरिंग कॉलेज के लिए मिसाल जैसी थी। वो जिस तरफ बैठती थी उस तरफ बहुत ढेर सारी कुर्सियां सरक करके लग जाती थीं। प्रोफेसर की तरफ से देखने पर क्लास एक तरफ को भागी हुई दिखती थी ,क्योंकि दूसरी तरफ बहुत कम चेयर होती थी।

अपनी इस कस्तूरी से यह मृग  भी अनजान नहीं था। कस्तूरी पाने के लिए लोग आखेट के तरह तरह के अस्त्र -शस्त्र और कौशल आजमा रहे थे। मृग भी मदमस्त था। अभी किसी भी दाने की तरफ अपना मुंह नहीं बढ़ा रहा था। वो मूलतः पंजाब की रहने वाली थी, उसके चाचा की अमीनाबाद में कपड़ों की दुकान है।  एक शादी समारोह में उसके चाचा जब जालंधर गए थे, तो गांव से अपने साथ लखनऊ घुमाने के लिए इसको भी लिवा लाये । तब गर्मी की छुट्टियां चल रही थी । वो अभी कक्षा आठ में पढ़ती थी। शहर में आ करके उसको अच्छा लगने लगा और उसने जिद की कि वह लखनऊ में ही रहे। इसके लिए उसके मां-बाप तैयार नहीं हो रहे थे, परंतु चाचा के कहने पर मान गए । उसके  रहने से चाची की गठिया के कारण घर के कामकाजों में जो समस्या बनी रहती थी उसमें वह हाथ बंटाने लगी। 12th के बाद उसने इंजीनियरिंग का एंट्रेंस क्वालीफाई कर लिया और इस तरीके से वह लखनऊ के ही बाबू बनारसी दास यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग के लिए आ गई।

* चित्र साभार वेब से।

पढ़ाई से इंजीनियर , व्यवसाय से ब्यूरोक्रेट तथा फितरत से साहित्यकार हैं ‘ रणविजय’।

वर्दी वाले बहुत कुछ मैनेज कर सकते हैं, ख़ास कर जो चीज अवैध हो।

-रणविजय

( भोर: उसके हिस्से की )