नई किताब से

नई किताब से

ठीक तीसरे दिन रात 9 बजे 011 कोड से एक अज्ञात नंबर से उसके मोबाइल पर फोन आया। उसका दिल धड़क गया और अनजाने ही लगने लगा कि ये उसी का फोन है। मधुर कोमल आवाज में चित्रा ने कहा –
“मै हॅू ……………चित्रा।“

एकदम से कलेजे को ठंडक पड़ी। कल से ही वो अजीब बेचैनी अनुभव कर रहा था। इस फोन का उसको रोज इंतजार था।क्यों था ये पता नहीं । नहीं होना चाहिए था ये पता था । ऐसा तो नही कह सकते कि उसको गहराई से प्‍यार था पर आकर्षण गहरा था। ऐसा ही कुछ हाल चित्रा का भी रहा होगा। स्त्री भांति ,थोड़े से उलाहना से चित्रा ने कहा-
“अरे.. तुम तो मुझे भूल ही गये।” फिर अपनी ही बात पर जैसे हॅसने लगी। बिना नाज़ के सीधी बात कह दे तो वो लड़की ही क्या ?
“अरे कहॉ? नही तो , पर तुम्‍हें मै कैसे काल करता।” कुछ झेंपते हुए शशांक ने इल्‍जाम वापिस कर दिया।
“चिटठी तो लिख सकते थे।” अटेंशन तो चाहिए ही ।
“हॉ ………..पर………….” अब शशांक पकड़ा गया कुछ कहते न बना। 
चित्रा खिलखिला कर हॅसने लगी-
“अरे मैं तो मजाक कर रही थी, चिट्ठी इतनी जल्दी कैसे पहुचेगी? ” उसकी खिलखिलाहट उसके लिए जैसे प्राणवर्षा कर रही हो।उसका चित्त भी खिल उठा था क्योंकि चुहल में उसने उसे परस्त जो कर लिया था ।
“अब से लिखा करूँगा ।” कह कर उसने एक झूठा आश्‍वासन किया। अब वह बात का शिरा छोड़ना नहीं चाहता था । 
“और उसमें क्‍या लिखोगे?” फिर से चित्रा ने उसे फॅसा लिया । बातूनी जो थी वो ।
“तुम्‍हारे बारे में लिखॅूगा ………..” अचकचाया सा वो बोला।
“जैसे क्‍या…………”
“जैसे….. जैसे …………….. मुझे तुम से बात करना अच्‍छा लगता है।” एक नये नर्वस किशोर की तरह वह लडखडाया ।
“अच्‍छा ……………….और…………..” उसको मजा आ रहा था 
“और… अम.. हाँ .. तुम्‍हारी बातें मुझे अच्‍छी लगती हैं ।” कह कर शरमाया सा वो हॅसने लगा।
“अच्‍छा?.. बहुत अच्‍छा …………..और क्‍या क्‍या अच्‍छा लगता है?” अब वो उसे छेड़ने लगी।
“मुझे तुम बहुत अच्‍छी लगती हो।” जैसे झटके से ही निकल आया हो। पर तुरंत ही वो घबरा उठा । तजुर्बा नहीं था कि इस पर क्या रिएक्शन आ सकता है । इसके बाद की ख़ामोशी जानलेवा थी ।
एक लम्‍बी शांति के बाद चित्रा बोली “…………………क्‍या सचमुच?”
ये एक ऐसा सवाल था जिसमें विश्‍वास के लिए तहकीकात थी तथा एक एश्योरेंस (assurance) की मॉग थी।
“सचमुच, ……पहले ही दिन से, जब से तुम्‍हे मिला…………..या यॅू कहे कि जिस दिन से कनोट प्लेस में तुम्‍हे पहली बार देखा………….” उसने अनुमान से कल्पना में चित्र देखा कि वह हल्का आल्हादित मुस्कुरायी है और उसी रौ में हल्के से बालों को पीछे झटका है।

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पढ़ाई से इंजीनियर , व्यवसाय से ब्यूरोक्रेट तथा फितरत से साहित्यकार हैं ‘ रणविजय’।

वर्दी वाले बहुत कुछ मैनेज कर सकते हैं, ख़ास कर जो चीज अवैध हो।

-रणविजय

( भोर: उसके हिस्से की )