साल का अंत – अहर्निश थी मेरी वो-धन्यवाद नवोदयन दोस्तो, वीडियो क्रिएटिव के लिए

साल का अंत – अहर्निश थी मेरी वो-धन्यवाद नवोदयन दोस्तो, वीडियो क्रिएटिव के लिए

तेरी विदाई   

अहर्निश थी मेरी वो, पर विदाई ज़रूरी थी, 

पीड़ा की गहराइयों से, अब रिहाई ज़रूरी थी। 

चेतना के हर पल क्षण में, सर्वव्याप्त रही वो, 

निशा में, तन्हाई में, ईश सी साक्षात रही वो, 

रीतियों, अनरीतियों, प्रतिष्ठा की जकड़न में, 

तुझको इस जन्म में हासिल न कर पाऊंगा 

पर अब इस दर्द के सागर से उतराई ज़रूरी थी। 

अहर्निश थी मेरी वो, पर विदाई ज़रूरी थी। 

तेरे आने की खबर से चिपकती आंखें मेरी द्वार पर 

झनझनाती रहती ज़मीं पैरों तले,खुशियां मेरी अपार पर 

दमक उठता हूँ स्पर्श मात्र से, उषा के सूर्योदय सा, 

तुझको जाना ही पड़ता है ज़िंदगी देकर हर बार, पर 

मरण की तेरी इस खुदाई के पार, दूसरी खुदाई ज़रूरी थी। 

अहर्निश थी मेरी वो, पर विदाई ज़रूरी थी। 

पीड़ा की गहराइयों से, अब रिहाई ज़रूरी थी। 

चन्द्रोदय से सूर्योदय तक, मुश्किल वक्त गुज़रता 

नर्म शय्या , शीतल कक्ष,फिर भी कांटो सा चुभता 

तेरे कथनों की गूंज अनुगूंज में नखशिख डूबा मैं 

तुम बन कर ,मन मे ही सवाल जवाब करता 

तेरे ख्यालों की जकड़न से अब जुदाई ज़रूरी थी।

अहर्निश थी मेरी वो, पर विदाई ज़रूरी थी। 

तेरे रहने से होंठों पर सहज मुस्कान आते 

आकाश से भी ऊंचे ज़िंदगी के अरमान आते 

तेरे इनकार से भरभरा के गिर जाता है मेरा संसार 

क्यों अक्सर तुम एक अबूझ पहेली हो बन जाते 

चिर नींद के आगोश से, अब अंगड़ाई ज़रूरी थी 

अहर्निश थी मेरी वो, पर  विदाई ज़रूरी थी। 

बिफरा था इस बार मैं तेरे फिर रूठने से 

मिन्नतों से मनाया, रिझाया फिर तुमने मुझे 

एक चक्र पूरा कर, फिर अबोला किया तुमने 

सीने में एक हूक उठी, मैं गया अपनी नींदों से,

 रूठने-मनाने की कसरत से लड़ाई ज़रूरी थी। 

अहर्निश थी मेरी वो, पर  विदाई ज़रूरी थी। 

पढ़ाई से इंजीनियर , व्यवसाय से ब्यूरोक्रेट तथा फितरत से साहित्यकार हैं ‘ रणविजय’।

वर्दी वाले बहुत कुछ मैनेज कर सकते हैं, ख़ास कर जो चीज अवैध हो।

-रणविजय

( भोर: उसके हिस्से की )